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कोई तसव्वुर में जल्वा-गर है बहार दिल में समा रही है | शाही शायरी
koi tasawwur mein jalwa-gar hai bahaar dil mein sama rahi hai

ग़ज़ल

कोई तसव्वुर में जल्वा-गर है बहार दिल में समा रही है

फ़ैज़ी निज़ाम पुरी

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कोई तसव्वुर में जल्वा-गर है बहार दिल में समा रही है
नफ़स नफ़स गुनगुना रहा है नज़र नज़र मुस्कुरा रही है

झुकी झुकी सी निगाह-ए-क़ातिल हज़ार ग़म्ज़े दिखा रही है
न जाने जागा है बख़्त किस का ये किस को बिस्मिल बना रही है

नहीं है अब ताब-ए-ज़ब्त बाक़ी कहीं मैं तौबा न तोड़ बैठूँ
तिरा इशारा नहीं ये साक़ी तो क्यूँ घटा मुस्कुरा रही है

न पूछ हालत मरीज़-ए-ग़म की घड़ी में कुछ है घड़ी में कुछ है
तबीब तशवीश में पड़ा है क़ज़ा खड़ी मुस्कुरा रही है

मिरी शब-ए-ग़म का पूछना क्या अजीब पेश-ए-नज़र है मंज़र
ये ज़िंदगी झिलमिला रही है कि नींद तारों को आ रही है

ये हर अदा पाएमाल हो कर भी दिल को है ज़ौक़-ए-पाएमाली
क़दम क़दम पर तिरी जवानी अजीब फ़ित्ने जगा रही है

हवा कुछ ऐसी चली है 'फ़ैज़ी' तमीज़ अपनों की अब है मुश्किल
मिरी तमन्ना भी कुछ ख़फ़ा है वफ़ा भी दामन छुड़ा रही है