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कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी | शाही शायरी
koi tasir to hai isko nawa mein aisi

ग़ज़ल

कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी

तौक़ीर तक़ी

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कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
रौशनी पहले न थी दिल की फ़ज़ा में ऐसी

और फिर उस के तआक़ुब में हुई उम्र तमाम
एक तस्वीर उड़ी तेज़ हवा में ऐसी

जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़
अब गुज़रती हैं तिरे शहर में शामें ऐसी

आँख मसरूफ़ है ज़म्बील-ए-हुनर भरने में
किस ने रक्खी है कशिश अर्ज़ ओ समा में ऐसी

उल्टी जानिब को सफ़र करने लगा हर मंज़र
सनसनी फैल गई राह-ए-फ़ना में ऐसी

कहकशाएँ भी तहय्युर से निकल सकती नहीं
छोड़ आया हूँ कई नज़रें ख़ला में ऐसी

यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
यानी कुछ बात तो है कोह-ए-निदा में ऐसी