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कोई सुने न सुने अर्ज़-ए-हाल करता जा | शाही शायरी
koi sune na sune arz-e-haal karta ja

ग़ज़ल

कोई सुने न सुने अर्ज़-ए-हाल करता जा

मज़हर इमाम

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कोई सुने न सुने अर्ज़-ए-हाल करता जा
न रुक जवाब की ख़ातिर सवाल करता जा

समुंदरों को हवा में उछाल दे इक बार
तू बा-हुनर है तो ये भी कमाल करता जा

बदल दे हिज्र की साअत को वस्ल लम्हों में
बना के काम को आसाँ मुहाल करता जा

तू बे-मिसाल अगर है तो मुझ में ज़ाहिर हो
मुझे भी अपनी तरह बे-मिसाल करता जा

क़रीब आ कि उजालों के हार पहना दूँ
मुझे असीर-ए-शब-ए-ला-ज़वाल करता जा

शिकस्त ओ फ़तह नसीबों से है वले ऐ दिल
मिले हैं ज़ख़्म तो ख़ुद इंदिमाल करता जा

यहीं कहीं तिरा माज़ी भी साँस लेता है
गुज़रने वाले बस इतना ख़याल करता जा

तिरा हुनर तिरी दानाई बद-दुआ है 'इमाम'
ज़वाल तेरा मुक़द्दर कमाल करता जा

सुख़न-नवाज़ मिरे नुक्ता-चीं मिरे नाक़िद
मुझे शिकार-ए-इताब-ओ-जलाल करता जा

बहुत से तीर हैं तेरी कमाँ में क़ैद अब भी
मिरे लहू से क़बा अपनी लाल करता जा

मिरे ज़वाल पे कर सब्त आख़िरी तहरीर
ये कार-ए-नेक भी ऐ ला-ज़वाल करता जा