कोई सोचे न हमें कोई पुकारा न करे
हम कहीं हैं कि नहीं हैं कोई चर्चा न करे
रात अफ़्सूँ है कहीं का नहीं रहने देती
दिन को सोए न कोई रात को जागा न करे
हम निकल आए हैं अब धूप में जलने के लिए
कोई बादल नहीं भेजे कोई साया न करे
अन-गिनत आँखों में हम जलते रहे बुझते रहे
अब भले ख़्वाब हमारा कोई देखा न करे
हम ने इक शहर बसा रक्खा है दीवारों में
काम जो दिल ने किया चश्म-ए-तमाशा न करे
कोई अब जा के ज़रा देखे तो उस मिट्टी को
ऐसे सैराब किया है कोई दरिया न करे
गो फ़रामोशी की तकमील हुआ चाहती है
फिर भी कह दो कि हमें याद वो आया न करे
हम उसे रंज-ए-तमन्ना से तो भर सकते हैं
और ये दिल है कि अब कोई तक़ाज़ा न करे
वार करना है अगर हम पे तो वो खुल कर आए
और भूले से भी ये काम वो तन्हा न करे
ग़ज़ल
कोई सोचे न हमें कोई पुकारा न करे
अबरार अहमद