कोई शय नहीं यहाँ मुस्तक़िल ये अजब यहाँ का निज़ाम है
कभी धूप है कभी छाँव है कभी सुब्ह है कभी शाम है
वो जफ़ा करें तो जफ़ा करें मैं वफ़ा से बाज़ न आऊँगा
उन्हें अपने काम से काम है मुझे अपने काम से काम है
जो हमारी नज़रें न पा सकें तो हमारी नज़रों की है ख़ता
तिरा जल्वा पहले भी आम था तिरा जल्वा आज भी आम है
ये मिटा चुकी मिरी ज़िंदगी तो करम से अपने सँवार दे
वो मिरी निगाह का काम था ये तिरी निगाह का काम है
वो हरम हो या कि हो बुत-कदा कि वो संग-ए-दर हो हबीब का
जहाँ तेरी याद न आ सके वहाँ सज्दा करना हराम है
ये ख़बर है ज़ीस्त का कारवाँ रह-ए-इश्क़ में है रवाँ-दवाँ
मगर उस की कोई ख़बर नहीं कि सफ़र कहाँ पे तमाम है
उसे ज़िंदगी का लक़ब दिया कि जो एक ख़्वाब-ए-फ़रेब है
उसे मौत कहता है बे-ख़बर कि जो ज़िंदगी का पयाम है
नहीं कामयाब अमल अगर तू अदम में हो कि वजूद में
न यही सुकूँ का मक़ाम है न वही सुकूँ का मक़ाम है

ग़ज़ल
कोई शय नहीं यहाँ मुस्तक़िल ये अजब यहाँ का निज़ाम है
शारिब लखनवी