कोई रफ़ीक़ बहम ही न हो तो क्या कीजे
कभी कभी तिरा ग़म ही न हो तो क्या कीजे
हमारी राह जुदा है कि ऐसी राहों पर
रिवाज-ए-नक़्श-ए-क़दम ही न हो तो क्या कीजे
हमें भी बादा-गुसारी से आर थी लेकिन
शराब ज़र्फ़ से कम ही न हो तो क्या कीजे
तबाह होने का अरमाँ सही मोहब्बत में
किसी को ख़ू-ए-सितम ही न हो तो क्या कीजे
हमारे शेर में रोटी का ज़िक्र भी होगा
किसी किसी के शिकम ही न हो तो क्या कीजे
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ग़ज़ल
कोई रफ़ीक़ बहम ही न हो तो क्या कीजे
मुस्तफ़ा ज़ैदी