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कोई पयाम अब न पयम्बर ही आएगा | शाही शायरी
koi payam ab na payambar hi aaega

ग़ज़ल

कोई पयाम अब न पयम्बर ही आएगा

हकीम मंज़ूर

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कोई पयाम अब न पयम्बर ही आएगा
वो शब है आसमान से पत्थर ही आएगा

जा कर वो अपने शहर से उस को यक़ीन है
पानी पे कोई नक़्श बना कर ही आएगा

इतना बदल गया हूँ कि पहचानने मुझे
आएगा वो तो ख़ुद से गुज़र कर ही आएगा

बे-दर का इक मकान रुलाता है रात दिन
उस का भी दिल जो होगा कभी भर ही आएगा

क्या सोच के गया है ख़लाओं की सैर को
अब के परिंद लौट के बे-पर ही आएगा

ख़ुशबू का इंतिज़ार न कर बैठ कर यहाँ
शीशे के इस मकान में पत्थर ही आएगा

पत्थर कोई फ़ज़ा में मुअल्लक़ रहेगा क्यूँ
'मंज़ूर' तय है ये किसी सर पर ही आएगा