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कोई पहरा लगा नहीं होता | शाही शायरी
koi pahra laga nahin hota

ग़ज़ल

कोई पहरा लगा नहीं होता

रफ़अत शमीम

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कोई पहरा लगा नहीं होता
मैं ही फिर भी रहा नहीं होता

ख़ून दिल का हुआ तो ये जाना
नक़्श क्यूँ देर-पा नहीं होता

वक़्त क्यूँ है ग़ुबार आँखों में
अक्स भी आश्ना नहीं होता

कुछ तो दिल से कहा है आँखों ने
ज़ख़्म-ए-दिल क्या हरा नहीं होता

फिर उसे ही तलाश करता हूँ
जिस का कोई पता नहीं होता

जो भी अपनी ज़बाँ से देता वो
ज़ाइक़ा बद-मज़ा नहीं होता