कोई नज़र न पड़ सके मुझ हाल-मस्त पर
बैठा हुआ हूँ इस लिए पिछली निशस्त पर
इक मौज-ए-आतिशीं रग-ओ-पै में उतर गई
रखा है उस ने जूँ ही कफ़-ए-दस्त, दस्त पर
कब रास आई मुझ को मिरी फ़तह की ख़ुशी
मैं दिल-शिकस्ता हो गया उस की शिकस्त पर
है याद मुझ को आज भी पहला मुकालिमा
क़ाइम हूँ मैं तो आज भी अहद-ए-अलस्त पर
कैसे सँभाल रक्खा है इक ज़ात ने उसे
शश्दर हूँ काएनात के कुल बंद-ओ-बस्त पर
तय मरहला किया है अदम से वजूद का
पहुँचा हूँ तब मैं मंज़िल-ए-ना-हस्त-ओ-हस्त पर
'साहिर'! मैं अपने-आप से आगे निकल गया
हैरत-ज़दा हैं सब मिरी रूहानी जस्त पर

ग़ज़ल
कोई नज़र न पड़ सके मुझ हाल-मस्त पर
परवेज़ साहिर