कोई नाम है न कोई निशाँ मुझे क्या हुआ
मैं बिखर गया हूँ कहाँ कहाँ मुझे क्या हुआ
किसे ढूँडता हूँ मैं अपने क़़ुर्ब-ओ-जवार में
ऐ फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-दोस्ताँ मुझे क्या हुआ
ये कहाँ पड़ा हूँ ज़मीं के गर्द-ओ-ग़ुबार में
वो कहाँ गया मिरा आसमाँ मुझे क्या हुआ
कोई रात थी कोई चाँद था कई लोग थे
वो अजब समाँ था मगर वहाँ मुझे क्या हुआ
मिरे रू-ब-रू मुझे मैं दिखाई नहीं दिया
मिरे आईने मिरे राज़-दाँ मुझे क्या हुआ
ग़ज़ल
कोई नाम है न कोई निशाँ मुझे क्या हुआ
फ़ैज़ी