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कोई मक़ाम नहीं हद्द-ए-ए'तिबार के बा'द | शाही शायरी
koi maqam nahin hadd-e-eatibar ke baad

ग़ज़ल

कोई मक़ाम नहीं हद्द-ए-ए'तिबार के बा'द

सैफ़ बिजनोरी

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कोई मक़ाम नहीं हद्द-ए-ए'तिबार के बा'द
कहाँ मैं सज्दा करूँ आस्तान-ए-यार के बा'द

उठूँ तो जाऊँ कहाँ जा-ए-पुर-बहार के बा'द
कहीं पनाह नहीं उन की रहगुज़ार के बा'द

कहाँ का अज़्म है ऐ दिल हुसूल-ए-कार के बा'द
अब और भी कोई का'बा है कू-ए-यार के बा'द

तबाह हम हुए बीम-ओ-रजा में आख़िर-ए-कार
कुछ इंतिज़ार से पहले कुछ इंतिज़ार के बा'द

गिला नहीं है जफ़ा का मगर सवाल ये है
सताएँगे किसे फिर आप जाँ-निसार के बा'द

किसे ख़बर है कि गुज़रेगी इस असीर पे क्या
क़फ़स मिले जिसे रंगीनी-ए-बहार के बा'द

सहर के होते ही रुख़्सत हुआ मरीज़-ए-फ़िराक़
जहाँ में काम ही क्या था अब इंतिज़ार के बा'द

किसी से मशवरा-ए-तर्क-ए-इश्क़ 'सैफ़' न कर
न सुन किसी की दिल आज़मूदा-कार के बा'द