EN اردو
कोई मंज़िल नहीं मिलती तो ठहर जाते हैं | शाही शायरी
koi manzil nahin milti to Thahar jate hain

ग़ज़ल

कोई मंज़िल नहीं मिलती तो ठहर जाते हैं

कफ़ील आज़र अमरोहवी

;

कोई मंज़िल नहीं मिलती तो ठहर जाते हैं
अश्क आँखों में मुसाफ़िर की तरह आते हैं

क्यूँ तिरे हिज्र के मंज़र पे सितम ढाते हैं
ज़ख़्म भी देते हैं और ख़्वाब भी दिखलाते हैं

हम भी इन बच्चों की मानिंद कोई पल जी लें
एक सिक्का जो हथेली पे सजा लाते हैं

ये तो हर रोज़ का मामूल है हैरान हो क्यूँ
प्यास ही पीते हैं हम भूक ही हम खाते हैं

हर बड़ा बच्चों को जीने की दुआ देता है
हम भी शायद इसी विर्से की सज़ा पाते हैं

सुब्ह ले जाते हैं हम अपना जनाज़ा घर से
शाम को फिर इसे काँधों पे उठा लाते हैं

शहर की भीड़ में क्या हो इसी ख़ातिर 'आज़र'
अपनी पहचान को हम घर में ही छोड़ आते हैं