कोई मंज़िल न कोई जादा है
अब मुसाफ़िर का क्या इरादा है
दिल ये कहता है चाँद निकलेगा
तीरगी कल से कुछ ज़ियादा है
जितने ग़म हों मुझे अता कीजिए
दामन-ए-दिल बहुत कुशादा है
कम सही इल्तिफ़ात-ए-दोस्त मगर
मेरी उम्मीद से ज़ियादा है
हम 'सुवैदा' से मिल के आए हैं
फ़िक्र रंगीं मिज़ाज सादा है

ग़ज़ल
कोई मंज़िल न कोई जादा है
मोहम्मद नबी ख़ाँ जमाल सुवेदा