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कोई मंज़िल भी नहीं है कोई रस्ता भी नहीं | शाही शायरी
koi manzil bhi nahin hai koi rasta bhi nahin

ग़ज़ल

कोई मंज़िल भी नहीं है कोई रस्ता भी नहीं

बलबीर राठी

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कोई मंज़िल भी नहीं है कोई रस्ता भी नहीं
और सब महव-ए-सफ़र हैं कोई रुकता भी नहीं

हर तरफ़ बे-रंग सी गहरी उदासी का जमाव
एक रंगीं ख़्वाब जो नज़रों से हटता भी नहीं

किस तरह थामे हुए हैं ख़ुद को उस बस्ती के लोग
कोई मुतवाज़िन नहीं है और फिसलता भी नहीं

इक मुसलसल सी ये सई-ए-राइगाँ ये काविशें
एक पत्थर सा ये मंज़र जो पिघलता भी नहीं

बे-सबब सी टीस दिल में मुस्तक़िल होती हुई
जज़्बा-ए-बेबाक जो दिल में उतरता भी नहीं

हर तरफ़ ये धूप हर-दम तेज़-तर होती हुई
मोम का इक शहर लेकिन जो पिघलता भी नहीं