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कोई मंज़र भी सुहाना नहीं रहने देते | शाही शायरी
koi manzar bhi suhana nahin rahne dete

ग़ज़ल

कोई मंज़र भी सुहाना नहीं रहने देते

फ़ारिग़ बुख़ारी

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कोई मंज़र भी सुहाना नहीं रहने देते
आँख में रंग-ए-तमाशा नहीं रहने देते

चहचहाते हुए पंछी को उड़ा देते हैं
किसी सर में कोई सौदा नहीं रहने देते

रौशनी का कोई परचम जो उठा कर निकले
इस तरह दार को ज़िंदा नहीं रहने देते

क्या ज़माना है ये क्या लोग हैं क्या दुनिया है
जैसा चाहे कोई वैसा नहीं रहने देते

क्या कहें दीदा-वरो हम तो वो दरिया-दिल हैं
कभी साहिल को भी प्यासा नहीं रहने देते

रहज़नों का वही मंशूर है अब भी 'फ़ारिग़'
सर-कशीदा कोई जादा नहीं रहने देते