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कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे | शाही शायरी
koi kamar ko teri kuchh jo ho kamar to kahe

ग़ज़ल

कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे
कि आदमी जो कहे बात सोच कर तो कहे

मिरी हक़ीक़त-ए-पुर-दर्द को कभी उस से
ब-आह-ओ-नाला न कहवे ब-चश्म-ए-तर तो कहे

ये आरज़ू है जहन्नम को भी कि आतिश-ए-इश्क़
मुझे न शोला गर अपना कहे शरर तो कहे

ब-क़द्र-ए-माया नहीं गर हर इक का रुत्बा ओ नाम
तो हाँ हबाब को देखें कोई गुहर तो कहे

कहे जो कुछ मुझे नासेह नहीं वो दीवाना
कि जानता है कहे का हो कुछ असर तो कहे

जल उट्ठे शम्अ के मानिंद क़िस्सा-ख़्वाँ की ज़बाँ
हमारा क़िस्सा-ए-पुर-सोज़ लहज़ा भर तो कहे

सदा है ख़ूँ में भी मंसूर के अनल-हक़ की
कहे अगर कोई तौहीद इस क़दर तो कहे

मजाल है कि तिरे आगे फ़ित्ना दम मारे
कहेगा और तो क्या पहले अल-हज़र तो कहे

बने बला से मिरा मुर्ग़-ए-नामा-बर भँवरा
कि उस को देख के वो मुँह से ख़ुश-ख़बर तो कहे

हर एक शेर में मज़मून-ए-गिर्या है मेरे
मिरी तरह से कोई 'ज़ौक़' शेर-ए-तर तो कहे