कोई इश्क़ में मुझ से अफ़्ज़ूँ न निकला
कभी सामने हो के मजनूँ न निकला
बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला
बजा कहते आए हैं हेच उस को शाएर
कमर का कोई हम से मज़मूँ न निकला
हुआ कौन सा रोज़-ए-रौशन न काला
कब अफ़्साना-ए-ज़ुल्फ़-ए-शबगूँ न निकला
पहुँचता उसे मिस्रा-ए-ताज़ा-ओ-तर
क़द-ए-यार सा सर्व-ए-मौज़ूँ न निकला
रहा साल-हा-साल जंगल में 'आतिश'
मिरे सामने बेद-ए-मजनूँ न निकला
ग़ज़ल
कोई इश्क़ में मुझ से अफ़्ज़ूँ न निकला
हैदर अली आतिश