कोई हमदर्द नहीं कोई भी दम-साज़ नहीं
अब तो इस बज़्म में मेरी कोई आवाज़ नहीं
नग़्मा कैसा कि लबों पर भी है इक मोहर-ए-सुकूत
दिल की धड़कन के सिवा अब कोई आवाज़ नहीं
और ही होती है इक साज़-ए-शिकस्ता की सदा
सोज़-ए-ग़म जिस में न हो दिल की वो आवाज़ नहीं
महव-ए-परवाज़ है उस औज पे भी मेरा ख़याल
जिस बुलंदी पे फ़रिश्तों की तग-ओ-ताज़ नहीं
ख़ार बन जाना है हर फूल मिरे हिस्से का
बाग़बाँ ये मिरी क़िस्मत का तो ए'जाज़ नहीं
जब से बदला है तिरा तर्ज़-ए-सितम ऐ ज़ालिम
दिल-ए-बिस्मिल के तड़पने का वो अंदाज़ नहीं
करवटें लेते हैं नग़्मात-ए-मोहब्बत इस में
दिल की आवाज़ से बेहतर कोई आवाज़ नहीं
फिर गई मिलने से पहले वो नज़र ऐ 'कशफ़ी'
ये वो अंजाम है जिस का कोई आग़ाज़ नहीं

ग़ज़ल
कोई हमदर्द नहीं कोई भी दम-साज़ नहीं
कशफ़ी लखनवी