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कोई हमदर्द न हमदम न यगाना अपना | शाही शायरी
koi hamdard na hamdam na yagana apna

ग़ज़ल

कोई हमदर्द न हमदम न यगाना अपना

ममनून निज़ामुद्दीन

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कोई हमदर्द न हमदम न यगाना अपना
रू-ब-रू किस के कहें हम ये फ़साना अपना

न किसू जैब के हैं फूल न दामन के हैं ख़ार
किस लिए था चमन-ए-दहर में आना अपना

फ़ाएदा क्या जो हुए शेख़-ए-हरम राहिब-ए-दैर
न हुआ दिल में किसी के जो ठिकाना अपना

है हज़ारों दिल-ए-पुर-ख़ूँ को यहाँ पेच पे पेच
देखियो तुर्रा-ए-मुश्कीं न मिलाना अपना