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कोई ग़ज़ल हो ये लहजा नहीं बदलते हम | शाही शायरी
koi ghazal ho ye lahja nahin badalte hum

ग़ज़ल

कोई ग़ज़ल हो ये लहजा नहीं बदलते हम

सुदेश कुमार मेहर

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कोई ग़ज़ल हो ये लहजा नहीं बदलते हम
कि सच हो कितना भी कड़वा नहीं बदलते हम

किसी गली से ये रिश्ता नहीं बदलते हम
तुम्हारे बा'द भी रस्ता नहीं बदलते हम

खुली किताब के जैसी है ज़िंदगी अपनी
किसी के सामने चेहरा नहीं बदलते हम

लहूलुहान हों नज़रें या रूह हो ज़ख़्मी
हमारी आँखों का सपना नहीं बदलते हम

तमाम उम्र ही अब क्यूँ न ख़त्म हो जाए
तुम्हारे प्यार का क़िस्सा नहीं बदलते हम

जो जैसा है उसे वैसा ही हम ने चाहा है
मोहब्बतों में ये सिक्का नहीं बदलते हम

वफ़ा की राह के पक्के हैं हम मुसाफ़िर भी
मिलें न मंज़िलें रस्ता नहीं बदलते हम

किसी कनेर के फूलों से सुर्ख़ होंठ उस के
गुलों से आज भी रिश्ता नहीं बदलते हम

तमाम शक्लें हमें एक जैसी लगती हैं
किसी के वास्ते चश्मा नहीं बदलते हम

कटा-फटा ही सही है ये पैरहन सच का
नए लिबास से कपड़ा नहीं बदलते हम

ये गुल-मोहर की हैं शाख़ें किसी कि याद लिए
किसी की याद का चेहरा नहीं बदलते हम

कभी यहीं पे ही आ कर वो बैठ जाती थी
इसी लिए तो ये कमरा नहीं बदलते हम