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कोई एहसास मुकम्मल नहीं रहने देता | शाही शायरी
koi ehsas mukammal nahin rahne deta

ग़ज़ल

कोई एहसास मुकम्मल नहीं रहने देता

अम्बरीन सलाहुद्दीन

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कोई एहसास मुकम्मल नहीं रहने देता
दर्द का साथ मुसलसल नहीं रहने देता

होश की सर्द निगाहों से तके जाता है
कौन है जो मुझे पागल नहीं रहने देता

वक़्त तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़ के गिर्दाब में है
सर पे मेरे मिरा आँचल नहीं रहने देता

हाथ फैलाऊँ तो छू लेता है झोंके की तरह
एक पल भी मुझे बे-कल नहीं रहने देता

ख़्वाब के ताक़ पे रक्खी हैं ये आँखें कब से
वो मिरी नींद मुकम्मल नहीं रहने देता

मेरे इस शहर में इक आइना ऐसा है कि जो
मुझ को उस शख़्स से ओझल नहीं रहने देता