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कोई दुश्मन कोई हमदम भी नहीं साथ अपने | शाही शायरी
koi dushman koi hamdam bhi nahin sath apne

ग़ज़ल

कोई दुश्मन कोई हमदम भी नहीं साथ अपने

सुलैमान अरीब

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कोई दुश्मन कोई हमदम भी नहीं साथ अपने
तू नहीं है तो दो-आलम भी नहीं साथ अपने

साथ कुछ दूर तिरे हम भी गए थे लेकिन
अब कहाँ जाएँ कि ख़ुद हम भी नहीं साथ अपने

वो भी इक वक़्त तक ख़ुर्शीद-ब-कफ़ फिरते थे
ये भी इक वक़्त है शबनम भी नहीं साथ अपने

नाख़ुन-ए-वक़्त ने कब ज़ख़्म को दहकाया है
ऐसे इक वक़्त कि मरहम भी नहीं साथ अपने

सामने कितनी सलीबें हैं पए बे-गुनही
आज लख़्त-ए-दिल-ए-मर्यम भी नहीं साथ अपने

पी के सोचा कि ख़रीदेंगे ग़म-ए-दुनिया भी
तय हुए दाम तो दिरहम भी नहीं साथ अपने