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कोई दो-चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं | शाही शायरी
koi do-chaar nahin mahw-e-tamasha sab hain

ग़ज़ल

कोई दो-चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं

ग़ुफ़रान अमजद

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कोई दो-चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं
मेरे एहसास की आवाज़ पे ज़िंदा सब हैं

कोई जुगनू कोई तारा कोई सूरज कोई चाँद
और अजब बात कि महरूम-ए-उजाला सब हैं

उस जगह भी न हुई दर्द की लज़्ज़त महसूस
मैं समझता था जहाँ मेरे शनासा सब हैं

यूसुफ़-ए-वक़्त परेशान न होते क्यूँकर
कोई उँगली न कटी और ज़ुलेख़ा सब हैं

अर्सा-ए-हश्र की तस्वीर अजब है 'अमजद'
बे-कराँ भीड़ है और भीड़ में तन्हा सब हैं