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कोई दिन का आब-ओ-दाना और है | शाही शायरी
koi din ka aab-o-dana aur hai

ग़ज़ल

कोई दिन का आब-ओ-दाना और है

इस्माइल मेरठी

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कोई दिन का आब-ओ-दाना और है
फिर चमन और आशियाना और है

हाँ दिल-ए-बे-ताब चंदे इंतिज़ार
अम्न-ओ-राहत का ठिकाना और है

शम्अ' फीकी रात कम महफ़िल उदास
अब मुग़न्नी का तराना और है

ऐ जवानी तू कहानी हो गई
हम नहीं वो या ज़माना और है

जिस को जान-ए-ज़िंदगानी कह सकें
वो हयात-ए-जावेदाना और है

जिस को सुन कर ज़ोहरा-ए-संग आब हो
आह वो ग़मगीं फ़साना और है

वा अगर समा-ए-रज़ा हो तो कहूँ
एक पंद-ए-मुश्फ़िक़ाना और है

इत्तिफ़ाक़ी है यहाँ का इर्तिबात
सब हैं बेगाने यगाना और है