कोई दिन होगा कि हारे हुए लौट आएँगे हम
तेरी गलियों से गए भी तो कहाँ जाएँगे हम
आँसुओं का तो तकल्लुफ़ ही किया आँखों ने
ख़ून के घूँट से क्या शौक़ न फ़रमाएँगे हम
ज़िंदगी पहले ही जीने की तरह कब जी है
अब तिरे नाम पे मरने की सज़ा पाएँगे हम
कब तक ऐ अहद-ए-करम बाँधने वाले कब तक
दिल को समझाएँगे बहलाएँगे फुसलाएँगे हम
आह से अर्श-ए-मुअल्ला को न लर्ज़ा देंगे
तू समझता है क़यामत ही फ़क़त ढाएँगे हम
लाख मुर्तद सही बे-दीन नहीं हैं वाइ'ज़
बुत नए हैं तो ख़ुदा क्या न नया लाएँगे हम
जावेदानी का तसव्वुर में भी आया न ख़याल
हम समझते थे तिरे इश्क़ में मर जाएँगे हम
बस अब ऐ दिल कि क़सम खाई है उस ज़ालिम ने
जो तड़पता है उसे और भी तड़पाएँगे हम
दूर तुझ से तो क़ज़ा भी नहीं ले जाएगी
सर भी आख़िर तिरी दीवार से टकराएँगे हम
भूलता ही नहीं हम को वो सितमगर 'राहील'
ख़ाक उसे याद न करने की क़सम खाएँगे हम

ग़ज़ल
कोई दिन होगा कि हारे हुए लौट आएँगे हम
राहील फ़ारूक़