कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ
लिए हैं साँस और बाहर रहा हूँ
धुएँ में साँस हैं साँसों में पल हैं
मैं रौशन-दान तक बस मर रहा हूँ
फ़ना हर दम मुझे गिनती रही है
मैं इक दम का था और दिन भर रहा हूँ
ज़रा इक साँस रोका तो लगा यूँ
कि इतनी देर अपने घर रहा हूँ
ब-जुज़ अपने मयस्सर है मुझे क्या
सो ख़ुद से अपनी जेबें भर रहा हूँ
हमेशा ज़ख़्म पहुँचे हैं मुझी को
हमेशा मैं पस-ए-लश्कर रहा हूँ
लिटा दे नींद के बिस्तर पे ऐ रात
मैं दिन भर अपनी पलकों पर रहा हूँ
ग़ज़ल
कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ
जौन एलिया