कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे
ऐ अँधेरी बस्तियो तुम को ख़ुदा रौशन करे
नन्हे होंटों पर खिलें मासूम लफ़्ज़ों के गुलाब
और माथे पर कोई हर्फ़-ए-दुआ रौशन करे
ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख़ जज़्बों की धनक
साँवले हाथों को भी रंग-ए-हिना रौशन करे
एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए
एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे
ख़ैर अगर तुम से न जल पाएँ वफ़ाओं के चराग़
तुम बुझाना मत जो कोई दूसरा रौशन करे
आग जलती छोड़ आए हो तो अब क्या फ़िक्र है
जाने कितने शहर ये पागल हवा रौशन करे
दिल ही फ़ानूस-ए-हवा दिल ही ख़स-ओ-ख़ार-ए-हवस
देखना ये है कि उस का क़ुर्ब क्या रौशन करे
या तो इस जंगल में निकले चाँद तेरे नाम का
या मिरा ही लफ़्ज़ मेरा रास्ता रौशन करे
ग़ज़ल
कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे
इरफ़ान सिद्दीक़ी