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कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी | शाही शायरी
koi bhuli hui shai taq-e-har-manzar pe rakkhi thi

ग़ज़ल

कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
सितारे छत पे रक्खे थे शिकन बिस्तर पे रक्खी थी

लरज़ जाता था बाहर झाँकने से उस का तन सारा
सियाही जाने किन रातों की उस के दर पे रक्खी थी

वो अपने शहर के मिटते हुए किरदार पर चुप था
अजब इक लापता ज़ात उस के अपने सर पे रक्खी थी

कहाँ की सैर-ए-हफ़्त-अफ़्लाक ऊपर देख लेते थे
हसीं उजली कपासी बर्फ़ बाल-ओ-पर पे रक्खी थी

कोई क्या जानता क्या चीज़ किस पर बोझ है 'बानी'
ज़रा सी ओस यूँ तो सीना-ए-पत्थर पे रक्खी थी