कोई भी शख़्स जो वहम-ओ-गुमाँ की ज़द में रहा
वो ता-हयात अज़ाब-ए-क़ुबूल-ओ-रद में रहा
ख़ुदा की ज़ात में ज़म हो गया जहाँ दरवेश
वहाँ न फ़र्क़ कोई कार-ए-नेक-ओ-बद में रहा
वो मोहतरम है जो तस्ख़ीर-ए-ज़ात की ख़ातिर
तमाम उम्र लड़ा और अपनी हद में रहा
मिरे ही दम से कहानी में मा'नविय्यत थी
मिरा शुमार मगर हर्फ़-ए-मुस्तरद में रहा
वो हर लिहाज़ से ना-मो'तबर इकाई था
मगर वक़ार से मौजूद हर अदद में रहा
अजल ने ज़ीस्त के सब मसअले समेट लिए
बड़े सुकून से वो गोशा-ए-लहद में रहा
वो मैं नहीं था कोई और शख़्स था ऐ 'सोज़'
जो मेरा जिस्म लिए मेरे ख़ाल-ओ-ख़द में रहा
ग़ज़ल
कोई भी शख़्स जो वहम-ओ-गुमाँ की ज़द में रहा
हीरानंद सोज़