कोई भी नक़्श सलामत नहीं है चेहरे का
बदल गया है कुछ ऐसा चलन ज़माने का
मैं किस लिए तुझे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई दूँ
कि मैं तो आप ही पत्थर हूँ अपने रस्ते का
कोई है रंग कोई रौशनी कोई ख़ुशबू
जुदा जुदा है तअस्सुर हर एक लम्हे का
वो तीरगी है मुसल्लत कि आसमानों पर
सुराग़ तक नहीं मिलता किसी सितारे का
ग़ज़ब तो ये है मुक़ाबिल खड़ा है वो मेरे
कि जिस से मेरा तअल्लुक़ है ख़ूँ के रिश्ते का
तना हुआ है वहाँ आज ख़ेमा-ए-ख़ुर्शीद
उगा हुआ था जहाँ कल दरख़्त साए का
वो जा चुका है रुपहली रुतों के साथ मगर
भड़क रहा है अभी तक चराग़ सीने का
गुज़र रहे हैं ये किस पुल-ए-सिरात से हम लोग
कि दिल में 'ताब' गुमाँ तक नहीं है जीने का
ग़ज़ल
कोई भी नक़्श सलामत नहीं है चेहरे का
ताब असलम