कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
मैं घुट के मर गया अपनी सदा के गुम्बद में
ग़ुबार-ए-फ़िक्र छटा जब तो देखता क्या हूँ
अभी खड़ा हूँ मैं हर्फ़-ओ-नवा की सरहद में
मिरे हरीफ़ों पे बे-वज्ह ख़ौफ़ ग़ालिब है
है कौन मेरे सिवा मेरे वार की ज़द में
कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे
ज़मीं फलाँग गया अपने शौक़-ए-बेहद में
अजब था मैं भी कि ख़ुद अपनी ही सना की 'ज़ेब'
फिर एक हज्व कही इस क़सीदे की रद्द में
ग़ज़ल
कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
ज़ेब ग़ौरी