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कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में | शाही शायरी
koi bhi dar na mila narasi ke marqad mein

ग़ज़ल

कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में

ज़ेब ग़ौरी

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कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
मैं घुट के मर गया अपनी सदा के गुम्बद में

ग़ुबार-ए-फ़िक्र छटा जब तो देखता क्या हूँ
अभी खड़ा हूँ मैं हर्फ़-ओ-नवा की सरहद में

मिरे हरीफ़ों पे बे-वज्ह ख़ौफ़ ग़ालिब है
है कौन मेरे सिवा मेरे वार की ज़द में

कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे
ज़मीं फलाँग गया अपने शौक़-ए-बेहद में

अजब था मैं भी कि ख़ुद अपनी ही सना की 'ज़ेब'
फिर एक हज्व कही इस क़सीदे की रद्द में