कोई और है नहीं तो नहीं मिरे रू-ब-रू कोई और है
बड़ी देर मैं तुझे देख कर ये लगा कि तू कोई और है
ये गुनाहगारों की सर-ज़मीं है बहिश्त से भी सिवा हसीं
मगर इस दयार की ख़ाक में सबब-ए-नुमू कोई और है
जिसे ढूँढता हूँ गली गली वो है मेरे जैसा ही आदमी
मगर आदमी के लिबास में वो फ़रिश्ता-ख़ू कोई और है
कोई और शय है वो बे-ख़बर जो शराब से भी है तेज़-तर
मिरा मय-कदा कहीं और है मिरा हम सुबू कोई और है
ग़ज़ल
कोई और है नहीं तो नहीं मिरे रू-ब-रू कोई और है
नासिर काज़मी