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कोई अपने वास्ते महशर उठा कर ले गया | शाही शायरी
koi apne waste mahshar uTha kar le gaya

ग़ज़ल

कोई अपने वास्ते महशर उठा कर ले गया

वलीउल्लाह वली

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कोई अपने वास्ते महशर उठा कर ले गया
यानी मेरे ख़्वाब का मंज़र उठा कर ले गया

ज़ख़्म-ख़ुर्दा था यक़ीनन कोई ख़ुशबू-आश्ना
जो लगा था सर पे वो पत्थर उठा कर ले गया

गोशा गोशा आइना-ख़ाना नज़र आया मुझे
ख़ुद को जब बाहर से मैं अंदर उठा कर ले गया

क्यूँ सराबों को समझता है वो बहर-ए-बे-कराँ
क्यूँ वो मेरी ज़ात का पैकर उठा कर ले गया

कुछ न कुछ ले कर ही कुछ देती है दुनिया इस लिए
ख़ुद-ग़रज़ दुनिया से मैं दफ़्तर उठा कर ले गया

मैं तो संग-ए-मील हूँ हर राह-रौ के वास्ते
क्या मिलेगा कोई मुझ को गर उठा कर ले गया

अतलस-ओ-कम-ख़्वाब में मल्बूस था जिस का बदन
क्यूँ मिरी मैली सी वो चादर उठा कर ले गया

कल तलक जो कह रहा था मेरे फ़न को राएगाँ
आज वो मेरा ग़ज़ल-सागर उठा कर ले गया

किस ने मुझ को अंजुमन में कर दिया तन्हा 'वली'
कौन मेरी फ़िक्र का मेहवर उठा कर ले गया