कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है 
मिरे दिल में इक तमन्ना कहीं सर उभारती है 
मिरी सोच का तरीक़ा मिरी आँख का सलीक़ा 
यही शय है तेरे अंदर जो तुझे सँवारती है 
नए शौक़ की चमक है किसी मेहमाँ नज़र में 
मिरी रूह में उतर कर मिरे सर उभारती है 
मुझे कुछ दिनों से उस से बड़ा प्यार मिल रहा है 
कभी अपने दिल को वारे कभी जान हारती है 
कभी जूड़ा खोल देना कभी फिर से बाँध लेना 
मुझे शक सा हो चला है वो मुझे उभारती है 
कोई गूँज बन के अब तक वो है जिस्म-ओ-जाँ से लिपटी 
कि ठहर ठहर के अब भी वो मुझे पुकारती है 
घने हो गए ज़ियादा जहाँ चाँदनी के साए 
उसी दामन-ए-शजर में वो मुझे पुकारती है 
नया हुस्न देखता हूँ ख़म-ए-शाख़-ए-हर-शजर पर 
ये बहार अपने तन से जो लिबास उतारती है 
कई साल की मोहब्बत मगर आज भी वही है 
कि मैं इक शरीर बच्चा वो मुझे सुधारती है 
बड़ी देर से हूँ लौटा मुझे ये बताओ लोगो 
मिरी आरज़ू का दामन वो कहाँ पसारती है 
जो मरा है हादसे में मिरा उस से क्या था रिश्ता 
ये सड़क जो ख़ूँ में तर है मुझे क्यूँ पुकारती है
        ग़ज़ल
कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है
फ़े सीन एजाज़

