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कोह-ए-ग़म से क्या ग़रज़ फ़िक्र-ए-बुताँ से क्या ग़रज़ | शाही शायरी
koh-e-gham se kya gharaz fikr-e-butan se kya gharaz

ग़ज़ल

कोह-ए-ग़म से क्या ग़रज़ फ़िक्र-ए-बुताँ से क्या ग़रज़

अबू ज़ाहिद सय्यद यहया हुसैनी क़द्र

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कोह-ए-ग़म से क्या ग़रज़ फ़िक्र-ए-बुताँ से क्या ग़रज़
ऐ सुबुक-रुई तुझे बार-ए-गराँ से क्या ग़रज़

बे-निशानी-ए-मोहब्बत को निशाँ से क्या ग़रज़
ऐ यक़ीन-ए-दिल तुझे वहम-ओ-गुमाँ से क्या ग़रज़

नाला-ए-बे-सौत ख़ुद बनने लगा मोहर-ए-सुकूत
बे-ज़बानी को हमारी अब ज़बाँ से क्या ग़रज़

जौहर-ए-ज़ाती हैं उस की तेज़ियाँ ऐ संग-दिल
तेग़-ए-अबरू को तिरी संग-ए-फ़साँ से क्या ग़र्ज़

जब मोहब्बत में हुई रुस्वाई अपनी पर्दा-दार
राज़ से फिर क्या तअ'ल्लुक़ राज़-दाँ से क्या ग़रज़

जान दे कर ज़िंदा-ए-जावेद हो जाता है वो
मौत के ख़्वाहाँ को उम्र-ए-जावेदाँ से क्या ग़रज़

मैं ये कहता हूँ कि दोनों में ज़रूरी लाग है
वो ये कहते हैं ज़मीं को आसमाँ से क्या ग़रज़

दहर में जो कुछ भी होना था वो हो कर ही रहा
अब गुज़िश्ता वारदातों के बयाँ से क्या ग़रज़

जिस में क़ुदरत ख़ुद निशाने पर पहुँच जाने की हो
'क़द्र' फिर उस तीर को सई-ए-कमाँ से क्या ग़रज़