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कितनी मुश्किल से ग़म-ए-दोस्त बयाँ होता है | शाही शायरी
kitni mushkil se gham-e-dost bayan hota hai

ग़ज़ल

कितनी मुश्किल से ग़म-ए-दोस्त बयाँ होता है

शकूर जावेद

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कितनी मुश्किल से ग़म-ए-दोस्त बयाँ होता है
अश्क थमता है न आँखों से रवाँ होता है

मुतरिब-ए-वक़्त का आहंग बदल देता हूँ
जब तिरे आरिज़-ओ-गेसू का बयाँ होता है

रंग-ओ-बू बन के जो उड़ता है शबिस्तानों में
वो भी हसरत के चराग़ों का धुआँ होता है

ज़िंदगी जब्र के दामन में जनम लेती है
आदमी दार के साए में जवाँ होता है

ठहर जाता हूँ तह-ए-ज़ुल्फ़-ए-निगार-ए-फ़र्दा
बार-ए-इमरोज़ जो शानों पे गराँ होता है

ज़िंदगी क्या है बस इक ख़ाना-ए-मातम 'जावेद'
दिल धड़कता है तो एहसास-ए-फ़ुग़ाँ होता है