कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
राह में फ़ासले हैं पहले ही
कुछ तलाफ़ी निगार-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
हम लुटे क़ाफ़िले हैं पहले ही
और ले जाएगा कहाँ गुल-गुचीं
सारे मक़्तल खुले हैं पहले ही
अब ज़बाँ काटने की रस्म न डाल
कि यहाँ लब सिले हैं पहले ही
और किस शै की है तलब 'फ़ारिग़'
दर्द के सिलसिले हैं पहले ही
ग़ज़ल
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
फ़ारिग़ बुख़ारी