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कितने ख़्वाब टूटे हैं कितने चाँद गहनाए | शाही शायरी
kitne KHwab TuTe hain kitne chand gahnae

ग़ज़ल

कितने ख़्वाब टूटे हैं कितने चाँद गहनाए

मुजीब ख़ैराबादी

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कितने ख़्वाब टूटे हैं कितने चाँद गहनाए
जो रक़ीब-ए-ज़ुल्मत हो अब वो आफ़्ताब आए

दुश्मनों को अपनाया दोस्तों के ग़म खाए
फिर भी अजनबी ठहरे फिर भी ग़ैर कहलाए

ना-ख़ुदा की निय्यत का खुल गया भरम तो क्या
बात जब है कश्ती भी डूबने से बच जाए

हादसे भी बरसेंगे ज़लज़ले भी आएँगे
ये सफ़र क़यामत है तुम कहाँ चले आए

फूल फूल बरहम है ख़ार ख़ार दुश्मन है
हम 'मुजीब' गुलशन से लौ लगा के पछताए