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कितने जुग बीत गए फिर भी न भूला जाए | शाही शायरी
kitne jug bit gae phir bhi na bhula jae

ग़ज़ल

कितने जुग बीत गए फिर भी न भूला जाए

सय्यद अहमद शमीम

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कितने जुग बीत गए फिर भी न भूला जाए
मैं जहाँ जाऊँ मिरे साथ वो चेहरा जाए

रात अब लौट चली नींद से जागा जाए
अपने खोए हुए सूरज को पुकारा जाए

ये दमकते हुए रुख़्सार चमकती आँखें
ज़िंदगी कर चुके अब डूब के देखा जाए

अब के तूफ़ान में हो जाए न रेज़ा रेज़ा
जिस्म की टूटती दीवार को थामा जाए

मोहतसिब शहर में मीज़ान लिए फिरते हैं
हम गुनहगार हैं इस शहर से भागा जाए

अपने ही दिल में कभी झाँक के देखो मुझ को
मैं कोई राज़ नहीं हूँ जिसे समझा जाए

ले के शीशे में चलो आतिश-ए-सय्याल 'शमीम'
क़ाज़ी-ए-शहर के ईमान को परखा जाए