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कितने दिन हब्स-ए-मुसलसल में बसर होते हैं | शाही शायरी
kitne din habs-e-musalsal mein basar hote hain

ग़ज़ल

कितने दिन हब्स-ए-मुसलसल में बसर होते हैं

महशर बदायुनी

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कितने दिन हब्स-ए-मुसलसल में बसर होते हैं
बड़े अशआर बड़े ग़म का समर होते हैं

हिकमत-ए-वक़्त भी करती है अता जिन को ख़िराज
मैं इसी सोच में हूँ क्या वो हुनर होते हैं

मुस्तक़िल बोझ न ठहराए सभी को ये ज़मीं
इज़्ज़त-ए-ख़ाक भी कुछ ख़ाक-बसर होते हैं

ख़ाली शाख़ों का भी होता है भला कोई मक़ाम
जो शजर छाँव बिछा दें वो शजर होते हैं

हम-सफ़र कैसी बिठा जाते हैं गर्द आँखों में
जब वो बे-ख़्वाब-ए-सफ़र ख़्वाब-ए-सफ़र होने हैं

शाम कुछ अच्छा नज़र आता है बस्ती का समाँ
सुब्ह होती है तो हालात दिगर होते हैं

क्या हुई ज़ाबता-ए-नज़्म की बाला-दस्ती
लोग अब क़त्ल सर-ए-राहगुज़र होते हैं

रख़्ना-ए-ज़र-तलबाँ सरज़निश-ए-तीरा-शबाँ
ऐसे क़िस्से तो यहाँ शाम ओ सहर होते हैं