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कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी | शाही शायरी
kitna ajib-tar hai ye rabt-e-zindagani

ग़ज़ल

कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी

नुशूर वाहिदी

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कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
हस्ती तमाम शोला आलम तमाम पानी

जल्वे यही रहेंगे नज़रें यही रहेंगी
बाक़ी है और रहेगा ये इर्तिबात-ए-फ़ानी

है इक ज़बान-ए-उल्फ़त हर पैकर-ए-मोहब्बत
आँसू भी तर्जुमानी गेसू भी तर्जुमानी

इक लम्हा-ए-तबस्सुम वो लम्हा-ए-नज़र है
जिस पर कोई लुटा दे इक उम्र-ए-जावेदानी

फूलों को तौलना है काँटों से खेलना है
दिल की नज़ाकतों में उन की मिज़ाज-दानी

ग़म ज़िंदगी है लेकिन शायर 'नुशूर' तेरा
नग़्मों से खेलता है जब तक है ज़िंदगानी