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किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था | शाही शायरी
kitaben jab koi paDhta nahin tha

ग़ज़ल

किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था

अज़हर इनायती

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किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था
फ़ज़ा में शोर भी इतना नहीं था

अजब संजीदगी थी शहर भर में
कि पागल भी कोई हँसता नहीं था

बड़ी मासूम सी अपनाइयत थी
वो मुझ से रोज़ जब मिलता नहीं था

जवानों में तसादुम कैसे रुकता
क़बीले में कोई बूढ़ा नहीं था

पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
मगर माहौल ज़हरीला नहीं था

सभी कुछ था ग़ज़ल में उस की 'अज़हर'
बस इक लहजा मिरे जैसा नहीं था