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किसी ज़ालिम की जीते-जी सना-ख़्वानी नहीं होगी | शाही शायरी
kisi zalim ki jite-ji sana-KHwani nahin hogi

ग़ज़ल

किसी ज़ालिम की जीते-जी सना-ख़्वानी नहीं होगी

साबिर आफ़ाक़ी

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किसी ज़ालिम की जीते-जी सना-ख़्वानी नहीं होगी
कि दाना हो के मुझ से ऐसी नादानी नहीं होगी

दिल-ए-आबाद का सा कोई शहर आबाद क्या होगा
दिल-ए-वीरान की सी कोई वीरानी कहाँ होगी

अदू से क्या गिला करना कि वो मा'ज़ूर लगता है
हमारी क़द्र-ओ-क़ीमत उस ने पहचानी नहीं होगी

नुजूमी में नहीं लेकिन ये अंदाज़े से कहता हूँ
मोहब्बत तो रहेगी पर ये अर्ज़ानी नहीं होगी

इलाज-ए-अस्ल है इक आज़मूदा नुस्ख़ा दुनिया में
परेशाँ तुम रहोगे तो परेशानी नहीं होगी

खुला दरवाज़ा रख छोड़ा है जब जी चाहे आ जाना
अजी अब हम से अपने घर की दरबानी नहीं होगी

न तुम आए तो 'साबिर' क्या मज़ा आएगा महफ़िल में
ग़ज़ल-ख़्वानी तो होगी पर गुल-अफ़्शानी नहीं होगी