किसी ज़ालिम की जीते-जी सना-ख़्वानी नहीं होगी
कि दाना हो के मुझ से ऐसी नादानी नहीं होगी
दिल-ए-आबाद का सा कोई शहर आबाद क्या होगा
दिल-ए-वीरान की सी कोई वीरानी कहाँ होगी
अदू से क्या गिला करना कि वो मा'ज़ूर लगता है
हमारी क़द्र-ओ-क़ीमत उस ने पहचानी नहीं होगी
नुजूमी में नहीं लेकिन ये अंदाज़े से कहता हूँ
मोहब्बत तो रहेगी पर ये अर्ज़ानी नहीं होगी
इलाज-ए-अस्ल है इक आज़मूदा नुस्ख़ा दुनिया में
परेशाँ तुम रहोगे तो परेशानी नहीं होगी
खुला दरवाज़ा रख छोड़ा है जब जी चाहे आ जाना
अजी अब हम से अपने घर की दरबानी नहीं होगी
न तुम आए तो 'साबिर' क्या मज़ा आएगा महफ़िल में
ग़ज़ल-ख़्वानी तो होगी पर गुल-अफ़्शानी नहीं होगी

ग़ज़ल
किसी ज़ालिम की जीते-जी सना-ख़्वानी नहीं होगी
साबिर आफ़ाक़ी