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किसी तरतीब में रक्खी न बिखरने दी है | शाही शायरी
kisi tartib mein rakkhi na bikharne di hai

ग़ज़ल

किसी तरतीब में रक्खी न बिखरने दी है

क़ासिम याक़ूब

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किसी तरतीब में रक्खी न बिखरने दी है
मैं ने ये ज़िंदगी बेकार गुज़रने दी है

तंग करती है बहुत तिश्ना-लबी हम को भी
साँस भरता है अगर प्यास तो भरने दी है

इतनी बे-रहम मसीहाई मिरे पास रही
ज़िंदा कर दी कोई ख़्वाहिश कभी मरने दी है

कोई गौहर तिरी आइंदा की लहरों में नहीं
एक दरिया को ख़बर पिछले-पहर ने दी है

इस मशक़्क़त ने उसे तजरबा इनआम दिया
इक थकन उस को मगर दश्त-ए-सफ़र ने दी है