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किसी सूरत से हो जाता है सामान-ए-सफ़र पैदा | शाही शायरी
kisi surat se ho jata hai saman-e-safar paida

ग़ज़ल

किसी सूरत से हो जाता है सामान-ए-सफ़र पैदा

मुनव्वर लखनवी

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किसी सूरत से हो जाता है सामान-ए-सफ़र पैदा
इरादा कर ही लेता है ख़ुद अपनी रहगुज़र पैदा

गुनहगारी की निय्यत को गुनहगारी नहीं कहते
सफ़र के क़स्द से होती है कब गर्द-ए-सफ़र पैदा

ज़रूरी क्या कि बरसे आग ऊपर से नशेमन पर
ख़स-ओ-ख़ाशाक में हो जाएँगे बर्क़-ओ-शरर पैदा

कोई पुरसान-ए-ग़म हो या न हो क्या फ़र्क़ पड़ता है
अज़िय्यत ख़ुद ही कर लेती है अपना चारा-गर पैदा

'मुनव्वर' मुझ पे शाम-ए-यास ग़ालिब आ नहीं सकती
कि हर उम्मीद से होता है इक रंग-ए-सहर पैदा