किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई
चलो हटो भी हमारी ज़बान सूख गई
इक आह-ए-गर्म ने झुलसाए ख़ोशा-ए-अंजुम
तमाम खेती तिरी आसमान सूख गई
क़यामत और वो हंगामा फिर क़यामत का
लहद से उठते ही धड़कों से जान सूख गई
रहा न बा'द मिरे हाए कोई आबला-पा
पुकारते हैं ये काँटे ज़बान सूख गई
शब-ए-फ़िराक़ का आधा नहीं रहा तन-ओ-तोश
ये मेरे घर जो हुई मेहमान सूख गई
मिला भी हम को तो बे-वक़्त इस तरह खाना
कि चावल ऐँठ गए और नान सूख गई
बहुत ही फूली हुई थी ये अपनी रंगत पर
जो देखा रंग मिरा ज़ाफ़रान सूख गई
हवा-ए-गर्म ख़िज़ाँ में वो रंग-ओ-रूप कहाँ
थी अंदलीब यूँही धान-पान सूख गई
'रियाज़' याद है उन का विसाल में कहना
ख़ुदा के वास्ते छोड़ो ज़बान सूख गई
ग़ज़ल
किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई
रियाज़ ख़ैराबादी