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किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई | शाही शायरी
kisi se wasl mein sunte hi jaan sukh gai

ग़ज़ल

किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई

रियाज़ ख़ैराबादी

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किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई
चलो हटो भी हमारी ज़बान सूख गई

इक आह-ए-गर्म ने झुलसाए ख़ोशा-ए-अंजुम
तमाम खेती तिरी आसमान सूख गई

क़यामत और वो हंगामा फिर क़यामत का
लहद से उठते ही धड़कों से जान सूख गई

रहा न बा'द मिरे हाए कोई आबला-पा
पुकारते हैं ये काँटे ज़बान सूख गई

शब-ए-फ़िराक़ का आधा नहीं रहा तन-ओ-तोश
ये मेरे घर जो हुई मेहमान सूख गई

मिला भी हम को तो बे-वक़्त इस तरह खाना
कि चावल ऐँठ गए और नान सूख गई

बहुत ही फूली हुई थी ये अपनी रंगत पर
जो देखा रंग मिरा ज़ाफ़रान सूख गई

हवा-ए-गर्म ख़िज़ाँ में वो रंग-ओ-रूप कहाँ
थी अंदलीब यूँही धान-पान सूख गई

'रियाज़' याद है उन का विसाल में कहना
ख़ुदा के वास्ते छोड़ो ज़बान सूख गई