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किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं | शाही शायरी
kisi sabab se agar bolta nahin hun main

ग़ज़ल

किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं

इफ़्तिख़ार मुग़ल

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किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं
तो यूँ नहीं कि तुझे सोचता नहीं हूँ मैं

मैं तुम को ख़ुद से जुदा कर के किस तरह देखूँ
कि मैं भी ''तुम'' हूँ, कोई दूसरा नहीं हूँ मैं

तो ये भी तय! कि बिछड़ कर भी लोग जीते हैं
मैं जी रहा हूँ! अगरचे जिया नहीं हूँ मैं

किसी में कोई बड़ा-पन मुझे दिखाई न दे
ख़ुदा का शुक्र कि इतना बड़ा नहीं हूँ मैं

मिरी उठान की हर ईंट मैं ने रक्खी है
मैं ख़ुद बना हूँ! बनाया हुआ नहीं हूँ मैं

यहाँ जो आएगा वो ख़ुद को हार जाएगा
क़िमार-ख़ाना-ए-जाँ में नया नहीं हूँ मैं

मिरे वजूद के अंदर मुझे तलाश न कर
कि इस मकान में अक्सर रहा नहीं हूँ मैं

मैं एक उम्र से ख़ुद को तलाशता हूँ मगर
मुझे यक़ीन नहीं, हूँ भी या नहीं हूँ मैं

मैं इक गुमान का इम्काँ हूँ 'इफ़्तिख़ार'-मुग़ल
कि हो तो सकता हूँ लेकिन हुआ नहीं हूँ मैं