किसी निशाँ से अलामत से या सनद से न हो
अगर मैं हूँ तो ये होना भी ख़ाल-ओ-ख़द से न हो
मैं एक ऐसे ज़माने में बसना चाहता हूँ
ज़माना जिस का तअ'ल्लुक़ अज़ल अबद से न हो
मिरे अदू वो हक़ीक़त भी क्या हक़ीक़त है
सुबूत जिस का मयस्सर उसी के रद से न हो
इसी लिए तो मैं रखता हूँ ख़ुशबुओं सा मिज़ाज
मैं चाहता हूँ कि मेरा शुमार हद से न हो
बनाने वाला हूँ हाथों से अपने फ़र्दा का
वो ज़ाइचा जो लकीरों से या अदद से न हो
वजूद वाहिमा है ऐ बदन-नज़ाद समझ
ये तेरा साया भी शायद तिरे जसद से न हो
मैं अपना आप उसी के सुपुर्द कर दूँगा
इक ऐसा शख़्स जो अंबोह-ए-नेक-ओ-बद से न हो
ग़ज़ल
किसी निशाँ से अलामत से या सनद से न हो
आफ़ताब अहमद