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किसी नय रूह को जिस्मी क़बाएँ भेजी हैं | शाही शायरी
kisi nai ruh ko jismi qabaen bheji hain

ग़ज़ल

किसी नय रूह को जिस्मी क़बाएँ भेजी हैं

सुबोध लाल साक़ी

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किसी नय रूह को जिस्मी क़बाएँ भेजी हैं
दुआएँ माँगी थीं लेकिन दवाएँ भेजी हैं

जहाँ पे कोई मआ'नी नहीं थे लफ़्ज़ों के
ख़मोश हम ने वहाँ पर सदाएँ भेजी हैं

न जाने कौन सी दुनिया से बारहा किस ने
अजब ज़बान में कुछ इत्तिलाएँ भेजी हैं

मज़ाक़ उड़ाया है मौसम ने तिश्ना-कामी का
बग़ैर पानी कै काली घटाएँ भेजी हैं

किसी से दौलत-ए-ग़म आज तक नहीं बाँटी
हमेशा चिट्ठी में दिल-कश कथाएँ भेजी हैं

कहाँ कहाँ तिरे काफ़र ने सर झुकाया है
कहाँ कहाँ से मुक़द्दस दुआएँ भेजी हैं