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किसी मिस्कीन का घर खुलता है | शाही शायरी
kisi miskin ka ghar khulta hai

ग़ज़ल

किसी मिस्कीन का घर खुलता है

ताबिश देहलवी

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किसी मिस्कीन का घर खुलता है
या कोई ज़ख़्म-ए-नज़र खुलता है

देखना है कि तिलिस्म-ए-हस्ती
किस से खुलता है अगर खुलता है

दाव पर दैर-ओ-हरम दोनों हैं
देखिए कौन सा घर खुलता है

फूल देखा है कि देखा है चमन
हुस्न से हुस्न-ए-नज़र खुलता है

मय-कशों का ये तुलूअ' और ग़ुरूब
मय-कदा शाम-ओ-सहर खुलता है

छोटी पड़ती है अना की चादर
पाँव ढकता हूँ तो सर खुलता है

बंद कर लेता हूँ आँखें 'ताबिश'
बाब-ए-नज़्ज़ारा मगर खुलता है